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स्कूली शिक्षा के निजीकरण की तैयारी तो नहीं

पिछले माह 26 जून को सरकार ने नई शिक्षा नीति का प्रारूप तैयार करने के लिए नौ सदस्यीय पैनल की घोषणा करके पिछले तीन सालों से चल रही नई शिक्षा नीति लाने की कोशिश को फिर गति दी है। गौरतलब है कि मौजूदा सरकार ने 2014 में सत्ता में आते ही नई शिक्षा नीति लाने की घोषणा कर दी थी।


सलाहकारों एवं ऑनलाइन मिले करीब ढाई लाख सुझावों को ध्यान रखकर सुब्रमनियन समिति ने रिपोर्ट तैयार की थी, जिसे स्वीकार न कर 43 पृष्ठों का ‘इनपुट’ जारी किया गया और उस पर देशभर से सुझाव मांगे गए। अभी स्पष्ट नहीं है कि नया पैनल पहले मिले सुझावों को समेटते हुए मसौदा पेश करेगा या नए सिरे से काम करेगा। गौरतलब है कि नए पैनल के सदस्यों का शिक्षा से कोई संबंध नहीं रहा है और शिक्षा नीति के लिए कोई स्पष्ट व व्यापक समाजशास्त्रीय विज़न भी नहीं है। पैनल के अध्यक्ष इसरो के पूर्व प्रमुख कृष्णास्वामी कस्तूरीरंगन कर्नाटक में कम बजट वाले निजी स्कूलों समेत पीपीपी (प्राइवेट पब्लिक साझेदारी) मॉडल की पैरोकारी करते रहे हैं, जो इस आशंका को बल देता है कि सरकार सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था के निजीकरण के रास्ते तलाश रही है। पिछले तीन साल की कवायद के बाद भी सरकार नई शिक्षा नीति लाने का मकसद स्पष्ट नहीं कर सकी है। यह सवाल इसलिए जरूरी है, क्योंकि सरकार के सामने शिक्षा अधिकार कानून, 2009 को शत-प्रतिशत लागू करके देश के 15 लाख स्कूलों में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा देने की प्राथमिक चुनौती है। आरटीई एक्ट संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से पारित पहला कानून है, जिसके तहत 31 मार्च 2013 तक कानून के सारे प्रावधानों को लागू करना था और 31 मार्च 2015 तक सारे अध्यापकों को प्रशिक्षित व नियमित किए जाने की समय-सीमा निर्धारित थी।

शिक्षकों के नियमितीकरण एवं प्रशिक्षण की समय-सीमा अब जरूर मार्च 2019 तक बढ़ा दी गई है लेकिन, अभी भी सरकार के सामने कई चुनौतियां हैं। राइट टू एजुकेशन फोरम की रिपोर्ट के मुताबिक महज 9.08 प्रतिशत स्कूलों में ही कानून के पूरे प्रावधान लागू हो पाए हैं। 10 प्रतिशत स्कूल अभी भी एकल शिक्षक वाले हैं। आधे स्कूलों में स्वच्छ पेयजल तथा लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है। शिक्षा पर सकल घरेलू उत्पाद का महज 3.7 प्रतिशत ही खर्च किया जा रहा है, जबकि खुद मौजूदा सरकार ने भी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में 6 फीसदी शिक्षा के लिए देने का वादा किया था। बहरहाल, यह तीसरा अवसर है जब देश में राष्ट्रीय शिक्षा नीति बन रही है। पहली शिक्षा नीति 1968 में तथा दूसरी शिक्षा नीति 1986 में बनी थी, जिसे 1992 में पुनर्संशोधन किया गया था।

देश के जाने-माने शिक्षाविदों की अगुआई में एवं कोठारी आयोग (1964-66) की सुझावों के मुताबिक बनी पहली शिक्षा नीति (1968) में पर जीडीपी के 6 फीसदी खर्च और शिक्षा की सामाजिक भूमिका को केंद्र में रखा गया था। फिर वैश्वीकरण एवं नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के दौर में 1986 की नई शिक्षा नीति बनी, जिसका जोर नए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की शुरुआत और तकनीकी प्रशिक्षण पर था। केंद्रीय विद्यालयों की तर्ज पर देशभर में नवोदय विद्यालयों और प्रतिभा विद्यालयों की नींव रखी गई जहां गुणवत्तापूर्ण प्रशिक्षण प्राप्त शिक्षक, उन्नत किस्म के स्कूली ढांचे, निगरानी की कड़ी व्यवस्था एवं सामान्य सरकारी स्कूलों की तुलना में 10 गुना ज्यादा बजट का प्रावधान था। लेकिन, बाकी सरकारी स्कूल संसाधनों एवं मजबूत बुनियादी ढांचे के अभाव में बदहाली की तरफ बढ़ते ही गए। हालांकि, 1986 की शिक्षा नीति ने भी समान स्कूल प्रणाली व 6 फीसदी खर्च की बात बरकरार रखी थी। मगर पिछली सरकारों ने भी इन सुझावों पर कोई अमल नहीं किया। शिक्षा मंत्रालय द्वारा जारी ‘इनपुट’ में 6 प्रतिशत खर्च करने की बात तो दुहराई गई है लेकिन, समान स्कूल प्रणाली का जिक्र तक नहीं है।

देखना यह होगा कि क्या आने वाला दस्तावेज देश में शिक्षा के बढ़ते बाजारीकरण पर रोक लगाने के लिए कोई भी कारगर उपाय सुझाएगा, जबकि उच्च व तकनीकी शिक्षा के लगभग तीन-चौथाई हिस्से पर कब्जे के बाद आज निजीकरण का दैत्य स्कूली शिक्षा को भी निगलने को तैयार है। निजीकरण के पैरोकार सरकार के सामने पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप, वाउचर सिस्टम, प्राइवेट स्कूलों को शिक्षा के अधिकार कानून के दायरे से बाहर करना, कम आय वालों के लिए अफोर्डेबल स्कूल की इजाजत देना, उच्च शिक्षा में फीस-वृद्धि, सेल्फ-फाइनेंसिंग, एजुकेशन लोन जैसे कई विकल्प रख रहे हैं। अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए चलने वाले 92 प्रतिशत प्रशिक्षण केंद्र निजी संस्थाओं द्वारा संचालित हैं और वहां से निकलने वाले महज 7 प्रतिशत छात्र टीईटी (टीचर्स एलिजिबिलिटी टेस्ट) उत्तीर्ण कर पाते हैं। उच्च एवं स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में दुनिया भर में बदनाम ब्रिज इंटरनेशनल एकेडमी और पीयर्सन जैसी संस्थाओं को ‘कम खर्च वाले प्राइवेट स्कूल’ खोलने के लिए बढ़ावा दिया जा रहा है। हाल ही में आंध्र प्रदेश सरकार ने 4 हजार सरकारी स्कूलों को गुणवत्ता बढ़ाने के नाम पर इन कंपनियों को सौंपने का फैसला किया है। अप्रशिक्षित अध्यापकों के वेतन और आधारभूत संरचनाओं में कटौती करके कम खर्चे वाले स्कूल खोले जा रहे हैं।

शिक्षा का अधिकार कानून आने के बाद बच्चों की संख्या कम होने के नाम पर पिछले कुछ सालों में 2 लाख से ज्यादा सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए हैं। ऐसे में देखना यह होगा कि नई शिक्षा नीति एक मजबूत राष्ट्रीय सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के पक्ष में खड़ी होती है या शिक्षा को मुनाफाखोर कॉरपोरेट व्यावसायियों के हवाले कर देती है। क्या यह शिक्षा नीति शिक्षा की सामाजिक भूमिका और संवैधानिक मूल्यों की बात करेगी या फिर डिजिटल इंडिया, स्किल इंडिया के लुभावने हवाई सपनों के जरिये शिक्षा को सिर्फ रोजगार पाने के साधन के रूप में पेश करना ही उसका मकसद होगा? क्या यह सांस्कृतिक बहुलता, भाषा की विविधता एवं सामाजिक न्याय जैसे मूल्यों को संबोधित करेगी? सरकार को चाहिए कि शिक्षा के व्यापक परिप्रेक्ष्य को केंद्र में रखते हुए शिक्षा नीति बनाने की तरफ कदम उठाए जहां शिक्षा के अधिकार की संवैधानिक गारंटी को सम्पूर्णता में लागू किया जा सके और बाजारीकरण पर रोक लगाई जा सके।

(ये लेखक के अपने विचार हैं।)

अम्बरीश राय

राष्ट्रीय संयोजक, राइट टू एजुकेशन फोरम

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